भारत एक ओर जहां संस्कृतियों, ऐतिहासिक स्थलों और त्योहारों की भूमि है वहीं दूसरी ओर भारत की एक और पहचान कला के रुप में भी की जाती है। भारत कलाओं की भी भूमि है। जहां एक से बढ़कर एक कलाओं के बेहतरीन नमूने और साक्ष्य मौजूद हैं। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत तक भारत में कई ऐसी कलाकृतियां मौजूद हैं जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि कला के क्षेत्र में भारत का कितना अधिक योगदान है। प्राचीन काल की मूर्तियां, वास्तुकला, चित्रकला इत्यादि भारत को विश्व में सबसे महान बनाती है। यहां के कलाकारों की कलाओं से निर्मित कई स्थल हैं जो भारत को गौरवान्तित करते हैं। सारनाथ स्थित अशोक स्तभम्भा और उसके चार सिंह व धर्म चक्र युक्त शीर्ष भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है। कुषाण काल में विकसित गांधार और मथुरा कलाओं की श्रेष्ठता जगज़ाहिर है। गुप्त काल सिर्फ़ राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से ही सम्पन्न नहीं था, कलात्मक दृष्टि से भी वह अत्यन्त सम्पन्न था। पूर्व मध्ययुग में निर्मित विशालकाय मन्दिर, क़िले तथा मूर्तियाँ तथा उत्तर मध्ययुग के इस्लामिक तथा भारतीय कला के संगम से युक्त अनेक भवन, चित्र तथा अन्य कलात्मक वस्तुएँ भारतीय कला की अमूल्य धरोहर हैं।
पाषाण काल में मानव अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर विशेष आकार देता था और पत्थर के टुकड़े से फलक निकालते हेतु 'दबाव' तकनीक या पटककर तोड़ने की तकनीक का इस्तेमाल करने लगा था, परन्तु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई। इस सभ्यता की खुदाई में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व ही भारत में मूर्ति निर्माण तकनीक के विकास का द्योतक हैं। इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं कि भारत में कला का आगमन मनुष्य के साथ ही हुआ था। पाषाण काल से ही मानव अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर विशेष आकार देता था और पत्थर के टुकड़े से फलक निकालते हेतु 'दबाव' तकनीक या पटककर तोड़ने की तकनीक का इस्तेमाल करने लगा था, परन्तु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई। इस सभ्यता की खुदाई में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व ही भारत में मूर्ति निर्माण तकनीक के विकास का द्योतक हैं। भारतीय मूर्तिकला भारत के उपमहाद्वीपों की सभ्यताओं की मूर्तिकला परंपराएँ, प्रकार और शैलियाँ का संगम है। मूर्तिकला भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा से कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम रही है। भारतीय भवन प्रचुर रूप से मूर्तिकला से अलंकृत हैं और प्रायः एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। भारतीय मुर्तिकला की परंपा सिंधु घाटी सभ्यता से फैली। उस काल में मिट्टी की छोटी मूर्तियाँ बनाई गई। मौर्य काल (तीसरी शताब्दी ई।पू।) के महान् गोलाकार पाषाण स्तंभों और उत्कीर्णित सिंहों ने दूसरी और पहली शताब्दी ई।पू। में स्थापित हिंदू और बौद्ध प्रसंगों वाली परिपक्व भारतीय आकृतिमूलक मूर्तिकला का मार्ग प्रशस्त किया। ईसा काल की प्रथम तीन शताब्दियाँ मथुरा शैली मूर्तिकला का स्वर्णिक काल हैं। महायान बौद्ध धर्म के नये आदर्शों ने तत्कालीन मूर्ति शिल्पकारों को प्रेरित किया था। भारतीय पुरातत्वशास्त्रियों के अनुसार, बुद्ध मूर्तियों का निर्माण इस शैली के कलाकारों का महान् योगदान है। इन मूर्तियों में प्रयुक्त पत्थर सफेद-लाल था, जो शताब्दियों तक अपनी उत्कृष्ट कलात्मक गुणवत्ता के रूप में विद्यमान रहा। इतना ही नहीं प्राचीन गुफा एम्बॉसमेंट में अत्यधिक कुशल पत्थर-मूर्तियां अजंता की गुफाओं में जीवंत प्रतीत होने वाली मूर्तियां, यह दर्शाती है कि भारतीय कला में विविधता और सांस्कृतिक बहुतायत के सम्मेलन में समृद्ध अविश्वसनीय विरासत है।
भारत में प्रसिद्ध मूर्तियां
1. खजुराहो मंदिर, मध्य प्रदेश
भारत में सबसे व्यापक रूप से प्रसिद्ध यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक मध्य प्रदेश में स्थित खजुराहों मदिंर है जो अपनी नागा-शैली की वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। खजुराहो के मंदिर भारतीय स्थापत्य कला के उत्कृष्ट व विकसित नमूने हैं, यहां की प्रतिमाऐं विभिन्न भागों में विभाजित की गई हैं। जिनमें प्रमुख प्रतिमा परिवार, देवता एवं देवी-देवता, अप्सरा, विविध प्रतिमाऐं, जिनमें मिथुन (सम्भोगरत) प्रतिमाऐं भी शामिल हैं तथा पशु व व्याल प्रतिमाऐं हैं, जिनका विकसित रूप कंदारिया महादेव मंदिर में देखा जा सकता है। सभी प्रकार की प्रतिमाओं का परिमार्जित रूप यहां स्थित मंदिरों में देखा जा सकता है। यह मंदिर अपनी कामुक मूर्तियों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहां बनाई गई एक-एक आकृति स्त्री- पुरुष के संगम को इस प्रकार दर्शाती हुई बनाई गई है कि उनमें तनिक भी अश्लिलता नजर नहीं आती। यहां के मंदिर एक विविध कला कार्य का प्रदर्शन करते हैं, जहां उनमें से 90% दैनिक जीवन और अन्य प्रतीकात्मकता से प्रतिबिंबित होते हैं और उनमें से केवल 10% कामुक कला शैली से संबंधित होते हैं। इन आश्चर्यजनक अभी तक विवादास्पद मूर्तियां लंबे समय से दुनिया भर में मजबूत आलोचना और घोषणा दोनों को उजागर कर रही हैं। यदिन बात वास्तुकला की की जाए तो सामान्य रूप से यहां के मंदिर बलुआ पत्थर से निर्मित किए गए हैं, लेकिन चौंसठ योगिनी, ब्रह्मा तथा ललगुआँ महादेव मंदिर ग्रेनाइट (कणाष्म) से निर्मित हैं। खजुराहो के मंदिरों का भूविन्यास तथा ऊर्ध्वविन्यास विशेष उल्लेखनीय है, जो मध्य भारत की स्थापत्य कला का बेहतरीन व विकसित नमूना पेश करते हैं। यहां मंदिर बिना किसी परकोटे के ऊंचे चबूतरे पर निर्मित किए गए हैं। आमतौर पर इन मंदिरों में गर्भगृह, अंतराल, मंडप तथा अर्धमंडप देखे जा सकते हैं। यहां मंदिरों में जड़ी हुई मिथुन प्रतिमाऐं सर्वोत्तम शिल्प की परिचायक हैं, जो कि दर्शकों की भावनाओं को अत्यंत उद्वेलित व आकर्शित करती हैं और अपनी मूर्तिकला के लिए विशेष उल्लेखनीय हैं। खजुराहो की मूर्तियों की सबसे अहम और महत्त्वपूर्ण ख़ूबी यह है कि इनमें गति है, देखते रहिए तो लगता है कि शायद चल रही है या बस हिलने ही वाली है, या फिर लगता है कि शायद अभी कुछ बोलेगी, मस्कुराएगी, शर्माएगी या रूठ जाएगी। और कमाल की बात तो यह है कि ये चेहरे के भाव और शरीर की भंगिमाऐं केवल स्त्री-पुरुषों में ही नहीं बल्कि जानवरों में भी दिखाई देते हैं।
2. हालेबिडु मंदिर मूर्तिकला, कर्नाटक
भारत में लगभग हर शाही राजवंश ने अपने क्षेत्र में कोई ना कोई कालकृति का अवश्य निर्माण कराया है जो आज के समय में अद्भुद कला का प्रमाण प्रस्तुत करती है। उनके द्वारा बनवाई गई यह कलाकृतियां उस कला और संस्कृति को विकसित करने में मदद करती हैं, जिस पर उन्होंने शासन किया था। होसाला वंश ने 1000 सीई से 1346 सीई तक दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया और उन्होंने वास्तुशिल्प और मूर्तिकला शैलियों को संरक्षित किया जो उस समय मौजूद शैलियों से अलग थीं। उनके हस्ताक्षर प्रतिष्ठान, कर्नाटक के हेलबिडु में होसालेश्वर मंदिर महान भारतीय कलाकृति का एक जीवंत उदाहरण है। होयसल मंदिर केशव मन्दिर और हलेबिड के मन्दिर सोमनाथपुर और अन्य दूसरों से भिन्न हैं।
यहां आप कलात्मक शैली की अद्भुत नक्काशियों को करीब से महसूस कर सकेंगे। हालेबिडु गार्डन, हालेबिडु की अद्भुत नक्काशियां शिल्पकारों द्वारा एकाश्मक अखंडित चट्टान को बड़ी लेथ पर घुमाकर इच्छित आकार देने की क्रिया के चलते स्तंभों को विशिष्ट रूप मिलाया जाता था। यहां की हर दीवार पर एक आलीशान इबारत लिखी हुई है। ऐसा कहा जा सकता है कि होयसल कला का आरंभ ऐहोल, बादामी और पट्टदकल के प्रारंभिक चालुक्य कालीन मंदिरों में हुआ स्तम्भ वाले कक्ष सहित अंतर्गृह के स्थान पर इसमें बीचों बीच स्थित स्तंभ वाले कक्ष के चारों तरफ बने अनेक मंदिर हैं, जो तारे की शक्ल में बने हैं। यहां के कई मंदिरों में दोहरी संरचना पायी जाती है। इसके प्रमुख अंग दो हैं और नियोजन में प्राय: तीन चार और यहाँ तक कि पांच भी हैं। हालेबिडु मंदिरों की नक्काशी अपनी प्रसिद्धि के चरमकाल में इस शैली की एक प्रमुख विशेषता स्थापत्य की योजना और सामान्य व्यवस्थापन से जुड़ी है। हालेबिडु की अद्भुत नक्काशियां इसमें बलुई पत्थर के स्थान पर पटलित या स्तारित चट्टान का प्रयोग किया गया क्योंकि इस पर तक्षण कार्य अच्छी तरह से किया जा सकता है केशव मन्दिर, हालेबिडु की अद्भुत नक्काशियां मंडप के हर स्तंभ पर ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी की गई है। मंदिर की मूर्तियां बेहद विनम्रता के साथ एक व्यापक और बहुत संवेदनशील स्त्री गुणवत्ता के साथ निर्मित की गई थीं। यहां मूर्तियां कीमती पत्थर द्वारा निर्मित की गई हैं जिनमें प्रमुख रुप से जानवरों, पौराणिक पात्रों, नर्तकियों, और कई अन्य हिंदू देवताओं और देवियों से जुड़ी हुई हैं।
3. कोणार्क सूर्य मंदिर मूर्तिकला, ओडिशा
भारत में एक और यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल में दर्जित कोणार्क सूर्य मंदिर है। कोणार्क सूर्य मंदिर स्वयं भारत में जन्म लेनी वाली सर्वोत्तम कलात्मक कार्यों में से एक है। उड़ीसा के सागर तट पर स्थित सूर्य मंदिर कोणार्क एक महत्वपूर्ण वास्तुशिल्प है। सन-टेम्पल’ के नाम से फेमस इस इमारत को देखने देश विदेश से रोज सैकड़ों सैलानी आते हैं। कोणार्क मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गंगवंशीय कलिंग नरेश नरसिंह देव ने करवाया था। स्थापत्य का यह बेजोड़ नमूना 1200 शिल्पकारों के कला कौशल से 12 वर्ष में बन कर तैयार हुआ था सूर्य देवता को समर्पित यह मंदिर एक विशाल रथ के आकार का है जो जटिल रूप से मूर्तिकला पत्थर के पहियों, दीवारों और स्तंभों के साथ स्थापित है। मंदिर निर्माण में एक विशेषता थी कि सूर्य की किरणें दिन भर विभिन्न कोणों से मंदिर के गर्भ गृह में स्थित सूर्य प्रतिमा को स्पर्श करती थीं। इसलिए इसका नाम कोणार्क पड़ा। इस मंदिर के रथ के दोनों ओर सूक्ष्म खुदाई से अलंकृत 12 जोड़ी पहिए हैं। नौ फुट व्यास वाले ये मनमोहक पहिए वर्ष के 12 महीनों को दर्शाते हैं। इन प्रस्तर चक्रों को इस प्रकार उकेरा गया है कि इन पर वर्ष के 24 पक्ष तथा इनकी पट्टियों पर बनी आठ-आठ तीलियां दिन के आठ पहरों को दर्शाती हैं। इसके आगे पत्थर के सात कलात्मक घोड़े हैं। मंदिर की दीवारों को कई अलग-अलग रूपों पर विस्तृत मूर्तियों से सजाया गया है। यहां कहीं देवी देवताओं की मूर्तियां हैं तो कहीं नाचती हुई अप्सराओं की मूर्ति बनी है। प्राकृतिक दृश्य, फूल पत्ती, पशु-पक्षी की मूर्तियां तो मानो हर दृश्य का हिस्सा हैं। इनमें से कुछ मूर्तियां कामुख कला की शैली को भी दर्शाती है। यही कारण है कि यह स्थल आज भी अपनी मूर्तिकला के लिए विख्यात है।
4. अशोक स्तम्भ- सारनाथ, उत्तर प्रदेश
भारत का राष्ट्रीय चिन्ह, अशोक स्तंभ भारत की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी के सारनाथ में स्थित है। यह भारत की विशेष मूर्तिकला की सबसे बड़ा उदाहरण है। इस अशोक स्तंभ में चार भारतीय शेरों के मुख बने हुए हैं। यह चार शेर एक दूसरे से पीठ से पीठ सटा कर बैठे हुए है इस स्तंभ पर एक पहिया, चार अलग-अलग नक्काशीदार जानवरों (एक घोड़ा, एक बैल, एक शेर और हाथी) और एक घंटी के आकार वाला कमल का फूल बना हुआ है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा 250 ईसा पूर्व में बौद्ध स्तूप के रुप में इसे सारनाथ में स्थापित किया गया था। इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में है जिसमें सम्राट ने आदेश दिया है कि जो भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल का है। तीसरा लेख गुप्त काल का है, जिसमें सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है। यह बलुआ पत्थर से निर्मित मूर्तिकला है और इसे 'भारतीय पत्थर की मूर्तियों के पहले महत्वपूर्ण समूह' के बीच माना जाता है। यह शैली अक्मेनिड फारसी और सरगोनीड मूर्तिकला शैली से प्रभावित थी। यह स्तम्भ दुनिया भर में प्रसिद्ध है, इसे अशोक स्तम्भ के नाम से भी जाना जाता है। भारत ने इस स्तम्भ को अपने राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया है तथा स्तम्भ के निचले भाग पर स्थित अशोक चक्र को तिरंगे के मध्य में रखा है ।
5. रामपुर बुल कैपिटल, बिहार
रामपुरवा बुल कैपिटल बिहार में स्थित है। इसे बैलों की राजधानी कहा जाता है। यहां मौर्य शासक अशोक के दो खण्डित स्तम्भ प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त स्तम्भों के शीर्षों पर सिंह और वृषभ की प्रतिमाएँ निर्मित हैं। जो पॉलिश सैंडस्टोन ब्लॉक पर किया गया एक बेहद परिष्कृत जटिल मूर्तिकला का उदाहरण है। इस पर भारतीय बैलों की नक्काशी बड़ी खूबसूरती से बनाया गया है। यह उसके शरीर, घंटी और शारीरिक बनावट को सबसे अलग बनाता है। अशोक-युग से कई अन्य मूर्तिकला कार्यों की तरह, इस बुल कैपिटल पर भी अमेमेनिड फारसी शैली का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है।
6. दीदरगंज(यक्षी)- चौरी-बेयर , बिहार
मौर्य कला का एक और आश्चर्यजनक उदाहरण एक 64 "लंबा याक्षी नक्काशी है जो बलुआ पत्थर के एक टुकड़े पर निर्मित की गई है। इसे लोकप्रिय रूप से दीदरगंज चौरी-बेयर के नाम से जाना जाता है। एक फ़ीट साढ़े सात इंच की चौकी पर बैठी चुनार के बलुआ पत्थरों से बनी पांच फ़ीट दो इंच लंबी यह मूर्ति दर्पण की तरह अविश्वसनीय रूप से चमकदार है। दारगंज से 1917 में एक यक्षिणी की सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई। वह मूर्ति अपने हाथ में चमर धारण की हुई है। अतः इसे चामरग्राही यक्षिणी कहा गया है। इसकी उसी वर्ष पटना संग्रहालय में स्थापना की गई। यक्षी प्राचीन भारत के स्त्री सौंदर्य वाले आदर्श मानकों को प्रदर्शित करती है। याक्षी में एक सुंदर पूर्ण वक्षप्रतिमा, पतली कमर तथा व्यापक नितंब के साथ कामुक मूर्ति है। यक्षी विनम्रता की मांग करती हुई सीधे खड़े होने के बजाय आगे की ओर थोड़ी झुकी हुई है। उसके दाहिने पैर का डिजाइन थोड़ा झुका हुआ है। यह एक गोल आकृति वाली मूर्ति है, इसे किसी भी कोण से देखा जा सकता है। विद्वानों के मत में यह मूर्ति मौर्यकालीन है। मूर्ति की रचना बहुत ही सुन्दर तथा इसकी मुद्रा अतीव स्वाभाविक है।
7. विष्णु अनंत शेशशायी- विष्णु मंदिर, देवगढ़, यूपी
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के देवगढ़ में स्थित विष्णु मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि यह गुप्त काल में बना था। यहाँ आप भगवान विष्णु के दस अवतार के दर्शन कर सकते हैं और यही नहीं मंदिर के द्वार पर गंगा और यमुना देवियों की नक्काशी की गयी है। पट्टी पर वैष्णव पौराणिक कथाओं की नक्काशी भी की गयी है। देवगढ़ में बनाई गई यह मूर्तियां गुप्त काल की मूर्तियां हैं। इनकी खासियत यह है कि इनमें पत्थरों को यूं तराशा गया है कि वह प्लास्टिक की मूर्तियों की तरह ही सॉफ्ट लगती हैं। साथ ही इनके चेहरे पर हाव-भाव भी साफ झलकते हैं। यही वजह है कि क्षीर सागर मे शयन करते हुए विष्णु की मूर्ति में उनके अस्त्र-शस्त्रों जगह उनके आयुध नायकों के हाव-भावों से स्पष्ट है कि वह मधु-कैटभ का सामना करने को तैयार हैं। इन नायकों में एक नायिका भी है जो गदा देवी हैं। इसमें चक्र के स्थान पर सुदर्शन नायक है, खड्ग के स्थान पर नंदक, धनुष के स्थान पर सारंग और गदा के स्थान पर देवी कौमोद की की मूर्तियां बनाई गई हैं। उन्होंने बताया कि अगर इन मूर्तियों को कुछ पल देखने लगिए तो वह आपसे बातें करती हुई सी महसूस होने लगती हैं। यह मूर्तिकला का जींवत उदाहरण है।
8. गंगा अवतरण- महाबलीपुरम, तमिलनाडु
गंगा को भारत में सबसे पवित्र नदी के रुप में माना जाता है। गंगा की उत्पित सतयुग से भी पहले की है। ऋगवेद में गंगा को एक सुंदर देवी के रुप में वर्णित किया गया है। जब से हिंदू कलाकारों ने देवी- देवताओं, की मूर्तियों का निर्माण मंदिरों और दीवरों पर किया तभी से गंगा को भी एक देवी के रुप में चित्रित किया गया। गंगा के वंशजों को दर्शाती हुई मर्तिकला महाबलीपुरम में स्थित है। महाबलीपुरम के अद्वितीय रथ गुफा मंदिरों का निर्माण पल्लव राजा नरसिम्हा के शासनकाल के दौरान 7वीं और 8वीं शताब्दियों में करवाया गया था। यहां गंगा के वंशज को दो मोनोलिथिक रॉक बोल्डर पर निर्मित किया गया जो एक विशाल 2 9 मीटर उंची एक मूर्तिकला है। नक्काशीओं ने भागीरथ द्वारा स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण को चित्रित किया है। यह खूबसूरत मूर्तिकला एक तरह की खुली हवा बेस-राहत मूर्तिकला के रूप में स्थित हैं। इस मंदिर में अपने रथों (रथ के रूप में मंदिर), मंडपों (गुफा अभयारणय), विशालकाय खुली– हवा वाले आश्रय स्थल जैसे प्रख्यात ' गंगा का अवतरण के साथ– साथ शिव की महिमा को दर्शाने के लिए बनाई गई हजारों मूर्तियां स्थित है। इन मंदिरों के निर्माण की शैली बौद्ध विहारों एवं चैत्य शैली पर आधारित थी। अधूरा तीन मंजिला धर्मराज रथ सबसे बड़ा है। द्रौपदी का रथ सबसे छोटा है। यह एक मंजिल का है और इसकी छत फूस से बनी छत जैसी दिखती है। अर्जुन का रथ भगवान शिव को समर्पित है जबकि द्रौपदी का रथ देवी दुर्गा को। यहां की मूर्तियां अदिभुद मूर्तिकला का प्रमाण है।
9. त्रिमुर्ती- एलिफंटा गुफाएं, महाराष्ट्र
मुम्बई के गेट वे ऑफ इण्डिया से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित एलिफैंटा की कलात्मक गुफ़ाओं का वास्तणविक नाम घारापुरी गुफायें है। एलिफेंटा नाम इन्हेंट पुर्तगालियों द्वारा उनके शासन काल में यहां पर बने पत्थर के हाथी के इसका नामकारण किया था। इस स्थाकन पर कुल सात गुफायें हैं, जिसमें से मुख्य गुफा में 26 स्तंभ हैं, जिसमें भगवान शिव के कई रूपों को उकेरा गया है। पहाड़ियों को काटकर बनाई गई ये मूर्तियां दक्षिण भारतीय मूर्तिकला से प्रेरित हैं। गुफाओं का ऐतिहासिक नाम घारपुरी मूल नाम अग्रहारपुरी से निकला हुआ है। इस स्थाओन पर हिन्दू धर्म के अनेक देवी देवताओं कि मूर्तियां हैं, लेकिन विशेष रूप से ये शिव को समर्पित हैं। यहां भगवान शंकर की नौ बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं जो शंकर के विभिन्न रूपों और क्रियाओं को दिखाती हैं। इनमें से एक त्रिमूर्ति शिव प्रतिमा सबसे आकर्षक है। यह मूर्ती करीब 23 से 24 फीट लम्बी और 17 फीट ऊंची बताई जाती है। इस मूर्ति में भोलेनाथ के तीन रूपों को दर्शाया गया है। मूर्ति के मुख पर गरिमामय गम्भीरता दिखाई देती है। नौ में से एक अन्यै मूर्ति शिव के पंचमुखी परमेश्वर रूप की है जिसमें शांति तथा सौम्यता का का दर्शन होता है। वहीं अर्धनारीश्वर रूप की भी एक मूर्ती है जिसमें भारतीय दर्शन और कला का सुन्दर समन्वय झलकता है। इस प्रतिमा में पुरुष और प्रकृति की दो मुख्य शक्तियों को मिला दिया गया है। मूर्ती में शंकर तनकर खड़े हैं और उनका हाथ अभय मुद्रा में है। उनकी जटा से गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिधारा बहती हुई दिखाई देती है। एक अन्या मूर्ति में सदाशिव चौमुखी गोलाकार में बने हैं। शिव के भैरव रूप की भी सुन्दर झलक देखने को मिलती है और तांडव नृत्य की मुद्रा में भी शिव को दिखाया गया है।
एलिफेंटा की मूर्तियां सबसे अच्छी और विशेष मानी जाती हैं। यहां पर शिव-पार्वती के विवाह का भी सुन्दर चित्रण किया गया है। यही खासियतें हैं जिनके चलते 1986 में यूनेस्को ने एलीफेंटा गुफ़ाओं को विश्व धरोहर घोषित कर दिया था। यह पत्थ6रों पर उकेरा गया गुफाओं का मंदिर समूह लगभग 6,000 वर्ग फीट के इलाके में फैला है, जिसमें एक मुख्य कक्ष, दो पार्श्व कक्ष, आंगन और दो अन्यं मंदिर हैं। ये गुफायें ठोस चट्टानों से काट कर बनायी गई हैं। बताते हैं कि इन्हेंष नौंवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के सिल्हारा वंश (8100–1260) के राजाओं ने निर्मित करवाया था।
10. नटराज- बृहदेश्वर मंदिर, तंजावुर, तमिलनाडु
ब्रृह्देश्वर मंदिर (मूल नाम पेरुवुडययार मंदिर) की दीवारों पर मूर्तिकलात्मक काम चोल राजवंश के बेहतरीन कला-कार्यों के कुछ सबसे प्रसिद्ध उदाहरणों में से एक है। वाधिदेव भगवान शिव को सर्वोच्च देवता के रूप में पूजने वाले उपासकों के लिए तमिल नाडु में बृहदेश्वर नटराज मंदिर आस्था के प्रमुख केंद्रों में से एक है। मान्यता है कि कैलाशपति ने इस पवित्र स्थान को अपनी सभी शक्तियों से उपकृत किया है, जिनका सृजन भी उन्होंने यहीं किया। मंदिर की बनावट इस तरह है कि इसके हर पत्थर और खंभे पर भरतनाट्यम नृत्य की मुद्राएँ अंकित हैं। मंदिर के केंद्र और अम्बलम के सामने भगवान शिवकाम सुंदरी (पार्वती) के साथ स्थापित हैं। पुराणों के मुताबिक भगवान यहाँ प्रणव मंत्र 'ॐ' के आकार में विराजमान हैं। यही वजह है कि आराधक इसे सबसे अहम मानते हैं। चिदंबरम भगवान शिव के पाँच क्षेत्रों में से एक है। इसे शिव का आकाश क्षेत्र कहा जाता है। शिव के नटराज स्वरूप के नृत्य का स्वामी होने के कारण भरतनाट्यम के कलाकारों में भी इस जगह का खास स्थान है। मंदिर शिव क्षेत्रम के रूप में भी प्रसिद्ध है। यहां की मूर्तिकला अपने आप में अनुपम है।
नटराज शिव की मूर्ति मंदिर की एक अनूठी विशेषता है। नटराज आभूषणों से लदे हुए हैं, जिनकी छवि अनुपम है। यह मूर्ति भगवान शिव को भरतनाट्यम नृत्य के देवता के रूप में प्रस्तुत करती है। मंदिर में पांच आंगन हैं। शिव के नटराज स्वरूप के नृत्य का स्वामी होने के कारण भरतनाट्यम के कलाकारों में भी इस जगह का कुछ ख़ास महत्व है। मंदिर की बनावट इस तरह है कि इसके हर पत्थर और खंभे पर भरतनाट्यम नृत्य की मुद्राएं अंकित हैं। मंदिर के केंद्र और अम्बलम के सामने भगवान शिवकाम सुंदरी (पार्वती) के साथ स्थापित हैं यह दक्षिण भारत में पाए जाने वाले सबसे प्रसिद्ध पत्थर नक्काशीदार नटराज में से एक माना जाता है।
11. डी पी रॉय चौधरी द्वारा श्रम की जीत मूर्ति, चेन्नई
सुविख्यात मूर्तिकार डी पी राय चौधरी की एक महत्त्वपूर्ण चिरस्थायी कलाकृति को श्रम की विजय की नाम से जाना जाता है। जो उनकी सुप्रसिद्ध मूर्तिकला का नमूना है। इस मूर्तिकला की विशेषता है कि इसमें पुरुषों के सुदृढ़ मांसल शरीर जो ढुलाई कर रहे हैं उनकी जीवन से संचारित मुद्राएं इसे एक अत्यधिक अर्थपूर्ण कलाकृति बनाते हैं । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि श्री राय चौधरी का संबंध अभिव्यंजनावादी शैली से है । एक बिल्कुल भिन्न मनोदशा में लेकिन एक समान रूप से साकार कार्य रामकिंकर बैज द्वारा एक युवा महिला की एक तरणशील अर्द्धप्रतिमा है। कांतिमय युवा चेहरा और भरपूर वक्षस्थल जीवन शक्ति का प्रतीक है। मूर्तिकला की दृष्टि से कहें तो संरचना अत्यधिक साकार तथा ऊर्जा से परिपूर्ण है । चेन्नई के मरीना बीच में 1959 में गणतंत्र दिवस पर इसकी स्थापना की गई थीष श्रम की जीत भारत में आधुनिक युग की सबसे प्रशंसनीय मूर्तिकला कला-कार्यों में से एक है। इसमें एक चट्टान को स्थानांतरित करने के लिए चार लोगों ने श्रमिक वर्ग के कड़ी मेहनत पर ध्यान दिया था। हर साल मई दिवस मनाने के लिए मूर्ति अभी भी मुख्य तत्व बनी हुई है।
12. रामकिंकर बैजद्वारा संथाल परिवार की मूर्ति- शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल
मकिंकर बैज को आधुनिक भारतीय मूर्तिकला का जनक कहा जाता है। रामकिंकर का जन्म 1906 में पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा में एक अत्यंत विपन्न परिवार में हुआ था लेकिन अपने दृढ़ संकल्प और लगन से उन्होंने मूर्तिकला में जिस ऊंचाई को छुआ वह परीकथा सा है। उन्होंने परवर्ती कई भारतीय मूर्तिकारों को अपनी कला से प्रेरित किया। उन्होंने 1938 में उन्होंने ‘संथाल परिवार’ की मूर्ति बनायी। देवी देवता, राजा-महाराजा और महान विभूतियों के समकक्ष उन्होंने संथाली परिवार को निर्मित कर साधारण जन को गरिमा प्रदान की जो उनकी सामाजिक राजनीतिक चेतना को दर्शाता है। उन्होंने अपने आसपास के परिवेश का गहन अध्यन किया था। शांतिनिकेतन में बनी उनकी मूर्तियों को देखकर यह जाना जा सकता है कि विषय-वस्तु और बाह्य-परिवेश (जहाँ मूर्तियां स्थापित है) में कैसी अदभुत समरसता वे रचते थे। मूर्तिकला में रामकिंकर ने आधुनिक कला की सभी प्रवृतियों को अपनाया –यथार्थवाद, घनवाद से लेकर अतियथार्थवाद तक। मूर्तियों के माध्यम के लिए परंपरागत चीजों को छोड़कर सीमेंट तक से मूर्तियाँ बनाये।
इस मूर्तिकला में एक संथाल परिवार का एक उल्लेखनीय काम दर्शाया गया है जिसमें एक पिता, एक मां, एक बच्चा और उनके देवता शामिल हैं जो उनके साथ अपनी नई जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए एक साथ आगे बढ़ते हैं। कलात्मक चमत्कार का यह सुंदर और समझदार काम विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के कला भवन में स्थित है।